📍नई दिल्ली | 17 Sep, 2025, 10:19 AM
MiG-21 Gun Troubles: पिछली सीरीज में हमने आपको बताया था कि कैसे 1965 की जंग में पहली बार सुपरसोनिक फाइटर जेट मिग-21 की एंट्री हुई। और कैसे विंग कमांडर एमएसडी “मैली” वॉलेन ने अपनी के-13 मिसाइल से एक सेबर को निशाना बनाने की कोशिश की, लेकिन मिसाइल ग्राउंड क्लटर के चलते निशाना चूक गया, वहीं दूसरी मिसाइल भी नाकाम रही। हालांकि इससके बाद पाकिस्तान में MiG-21 को लेकर खौफ छा गया था कि भारत के फाइटरजेट उसके सेबर और अमेरिकी F-104 स्टारफाइटर का मुकाबला कर सकते हैं। लेकिन इसके बीच एक दिक्कत भी सामने आई कि मिग-21 के शुरुआती मॉडल्स में गन नहीं थी और मिसाइल पर निर्भरता ने पायलटों को युद्ध में कई बार मुश्किल में डाल दिया था।
MiG-21 Gun Troubles: एक्सपोर्ट वर्जन से कई जरूरी उपकरण हटाए
साल 1960 के दशक की शुरुआत में जब पहले MiG-21F भारत पहुंचे, तो पायलट हैरान रह गए। यह मॉडल बेहद साधारण और अधूरा था। एक्सपोर्ट वर्जन से कई जरूरी उपकरण हटा दिए गए थे। इनमें आईएफएफ यानी Identification Friend or Foe सिस्टम नहीं था, रेडियो बेहद कमजोर थे और सबसे चौंकाने वाली कमी थी गनसाइट का न होना।
इसमें लगा हुआ “रिंग-एंड-बीड” रेटिकल द्वितीय विश्व युद्ध के विमान जैसा था। जबकि दस साल पहले आए MiG-15 में भी बेहतर जायरो गनसाइट लगा था।
भारत को मिला अगला वर्जन था MiG-21F-13 (Type-74)। इसमें जायरो गनसाइट तो था, लेकिन वह भी 2.75G से ऊपर की स्थिति में फेल हो जाता था। यानी असली डॉगफाइट में यह पूरी तरह बेकार साबित होता। साफ था कि सोवियत डिजाइनरों ने इस विमान को मिसाइल-केंद्रित बनाया था और गन को केवल औपचारिकता मान लिया था।

(Photo By: IAF Pilot Sameer Joshi)
MiG-21 Gun Troubles: हर गोली 1 किलो वजनी
मिग-21F-13 में लगी थी NR-30 कैनन, जो कागज पर बेहद शक्तिशाली थी। इसकी हर गोली 1 किलो वजनी थी, जो पश्चिमी 30 मिमी राउंड्स से दोगुनी भारी थी। यह 1000 राउंड प्रति मिनट की रफ्तार से फायर कर सकती थी। लेकिन इसमें सिर्फ एक ही कैनन लगी थी, वह भी स्टारबोर्ड साइड पर, और मात्र 80 राउंड्स की फीड थी।
भारतीय वायुसेना के MiG-21 ने 60 सालों तक देश की हवाई ताकत को मजबूती दी। “अलविदा! मिग-21” की इस सीरीज जानिए मिग-21PF, FL, M, Bis और बाइसन वैरिएंट्स का पूरा इतिहास और उनकी तकनीकी खूबियां…https://t.co/Ifr615W99H#MiG21 #IndianAirForce #IAF #MiG21Variants #MiG21Bison #DefenceNews… pic.twitter.com/BaZ5Xwx9HO
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यह गन वास्तव में बॉम्बर्स को रोकने के लिए बनाई गई थी, न कि डॉगफाइट्स के लिए। रिटायर्ड एयर चीफ मार्शल एवाई टिपनिस ने बाद में कहा था कि गनसाइट इतनी सीमित थी कि टारगेट को हिट करने से पहले वह विमान की नाक के नीचे गायब हो जाता था।
MiG-21 Gun Troubles: मिग-21PF (Type-76) में गायब की गन
जब MiG-21PF (Type-76) आया, तो सोवियत डिजाइनरों ने एक और बड़ा कदम उठाते हुए गन को पूरी तरह हटा दिया। इसमें नया RP-21 सैफायर रडार लगाया गया था, लेकिन वजन और ईंधन की जरूरत के कारण गन निकाल दी गई। असल ने सोवियत डिजाइनरों ने मिग-21 को इंटरसेप्टर के तौर पर डिजाइन किया था, ना कि डॉगफाइट या कॉम्बैट रोल के लिए।

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अब यह विमान केवल दो K-13 (AA-2 Atoll) इंफ्रारेड मिसाइलों पर निर्भर था। सोवियत सोच के मुताबिक यह काफी था। पश्चिम में भी उस दौर में यही ट्रेंड था। F-4 Phantom II और English Electric Lightning भी बिना गन के आए। केवल फ्रांस ने असहमति जताई और अपने Mirage III में ट्विन DEFA कैनन लगाए।
लेकिन भारतीय वायुसेना के लिए यह फैसला खतरनाक साबित होना था।
MiG-21 Gun Troubles: 1965 पहली लड़ाई और फेल हुई मिसाइल
4 सितंबर 1965 को जम्मू के जौरियां-अख्नूर सेक्टर में MiG-21 का कॉम्बैट डेब्यू हुआ। योजना थी कि मिग-21PF आसमान को सुरक्षित रखेंगे और पाकिस्तानी स्टारफाइटर्स को फंसाएंगे।
मिशन लीड कर रहे थे विंग कमांडर मल्ली वोल्लेन। उनके साथ थे उनके विंगमैन मुखो। दोनों सोवियत प्रेशर सूट में आसमान में पेट्रोलिंग कर रहे थे। तभी दो पाकिस्तानी F-86 सेबर नजर आए। वोल्लेन ने मिसाइल लॉक किया और फायर किया। पहली K-13 मिसाइल जमीन में जा गिरी। उन्होंने दूसरी मिसाइल चलाई, वह भी लक्ष्य से चूककर नीचे गिरी। अब उनके पास कोई हथियार नहीं बचा था।
गुस्से और निराशा में उन्होंने तय कर लिया कि वे सेबर को रैम यानी (टक्कर) मारेंगे। मिग-21 इतनी नजदीक पहुंच गया कि टक्कर महज 10 मीटर दूर रह गई। आखिरी क्षण में उन्होंने विमान ऊपर खींच लिया। बाद में उन्होंने बेस पर उतरते ही कहा— “एक तोप के लिए… सिर्फ एक तोप के लिए!”
भारतीय प्रेशर के बाद लगाया GP-9 गन पॉड
भारतीय वायुसेना ने तुरंत महसूस किया कि मिसाइलों पर निर्भर रहना खतरनाक है। सोवियत संघ पर दबाव डाला गया और नतीजे में आया GP-9 गन पॉड। इसमें लगा था GSh-23 ट्विन-बैरल गन, जो 3000 राउंड प्रति मिनट की स्पीड से फायर करता था।
200 राउंड्स के साथ यह लगभग 1300 मीटर तक प्रभावी था। GP-9 को विमान के नीचे फिट किया जाता था। यह बेहद भरोसेमंद था और पायलटों के मुताबिक, “इसने कभी युद्ध में फायर करने से इनकार नहीं किया।” इससे इंजन पर असर नहीं पड़ता था और हैंडलिंग भी प्रभावित नहीं होती थी।
हालांकि, यह 490 लीटर का ड्रॉप टैंक हटा देता था, जिससे विमान की रेंज कम हो जाती। इसलिए हर स्क्वाड्रन में सिर्फ कुछ विमान गन फिटेड रहते, बाकी फ्यूल टैंक के साथ उड़ते।
दिक्कत और भी थी – इसमें लगा PKI-1 फिक्स्ड साइट बेहद साधारण था। यह पायलट को डॉगफाइट में कोई मदद नहीं देता थाा। यह केवल एक चमकता हुआ डॉट दिखाता था, जिससे पायलट को एंगल और स्पीड का हिसाब खुद लगाना पड़ता था। फिर भी, GP-9 ने पायलटों का आत्मविश्वास लौटा दिया। अब उनके पास मिसाइल फेल होने पर एक फाइनल हथियार था।
एचएएल से छीना काम
1970 तक गन पॉड आ चुका था, लेकिन स्क्वॉड्रन्स में फिटिंग की रफ्तार बेहद धीमी थी। 1971 में युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। IAF ने 90 GP-9 पॉड और 120 GSh-23 गन का ऑर्डर दिया था। स्क्वाड्रन लीडर डेनजिल कीलोर ने चेतावनी दी कि बिना गन और साइट के मिग-21 खतरनाक रूप से अधूरा रहेगा।
इस बीच, एयर मार्शल वाईवी माल्से ने हस्तक्षेप किया। उन्होंने एचएएल नासिक से काम छीनकर थर्ड बीआरडी (बेस रिपेयर डिपो) चंडीगढ़ को सौंपा। तीन महीने में ही बीआरडी ने मिग-21 को गन पॉड और PKI-1 साइट के साथ तैयार कर दिया।
जुगाड़ गनसाइट
गन लगने के बावजूद गनसाइट की समस्या बनी रही। तब भरातीय वायुसेना ने अपने ग्नैट (Gnat) से ब्रिटिश एमके आईवीई जायरो सााइट निकाला और MiG-21 में उल्टा फिट कर दिया। आश्चर्यजनक रूप से यह काम कर गया।
12 दिसंबर 1971 को इसी सी-750 मिग-21FL ने पाकिस्तानी स्टारफाइटर को गिराया। यह भारतीय जुगाड़ की जीत थी, जिसने साबित किया कि मजबूरी में भी इनोवेशन से युद्ध जीता जा सकता है।
भारतीय वायुसेना का ‘गनलेस जेट’ को गनफाइटर बनाना
मिग-21 को सोवियत संघ ने एक मिसाइल इंटरसेप्टर बनाया था। लेकिन भारत ने इसे अपनी ज़रूरतों के हिसाब से डॉगफाइटर में बदल दिया। GP-9 गन पॉड और जुगाड़ साइट ने इसे वह ताकत दी, जिसने पाकिस्तान के सेबर और स्टारफाइटर्स के खिलाफ भारतीय पायलटों को निर्णायक बढ़त दी। मिग-21 को गनफाइटर बनाने का श्रेय भारतीय वायुसेना की जिद और मेहनत को जाता है। जहां सोवियत डिजाइनर मिसाइल पर भरोसा कर रहे थे, वहीं भारतीय पायलटों ने बार-बार साबित किया कि डॉगफाइट में गन की अहमियत कभी खत्म नहीं होती।