📍नई दिल्ली | 11 Sep, 2025, 11:55 AM
Safran-DRDO Jet Engine India: भारत ने अपने पांचवी पीढ़ी के फाइटर जेट एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (AMCA) का जेट इंजन बनाने के लिए फ्रांस की कंपनी के साथ समझौता किया है। यह समझौता भारत के डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन और फ्रांस की सफरान के बीच हुआ है। इस समझौते के तहत भारत को पहली बार पूर्ण रूप से जेट इंजन की टेक्नोलॉजी मिलेगी। यह भारत का पहला 100 फीसदी स्वदेशी जेट इंजन होगा जिसे यहीं बनाया जाएगा। वहीं, यह साझेदारी भारत को उस कैटेगरी में ला सकती है, जहां आज तक केवल कुछ ही देश हैं, जिनके पास अपने लड़ाकू विमानों के लिए पूर्ण इंजन बनाने की क्षमता है।
खास बात यह होगी कि पहली बार देश को जेट इंजन बनाने की पूरी तकनीक यानी 100% टेक्नोलॉजी ट्रांसफर मिलने की संभावना है। फ्रांस की प्रमुख एयरोस्पेस कंपनी सफरान (Safran) और भारत की डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन की विंग गैस टर्बाइन रिसर्च इस्टैब्लिशमेंट (GTRE) मिलकर एक नया हाई-थ्रस्ट जेट इंजन डेवलप करेंगे, जो भविष्य के भारतीय लड़ाकू विमान एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (AMCA) को पावर देगा।
Safran-DRDO Jet Engine India: 100% ToT की पेशकश
इस परियोजना की सबसे खास बात यह है कि फ्रांस ने भारत को 100% टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की पेशकश की है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण क्रिस्टल ब्लेड टेक्नोलॉजी (Crystal Blade Technology) भी शामिल है। यह टेक्नोलॉजी जेट इंजन का सबसे संवेदनशील और अत्याधुनिक हिस्सा है। सामान्यत: कोई भी देश इसे साझा नहीं करता।
क्रिस्टल ब्लेड्स खास धातुओं सुपर-अलॉय से बनाए जाते हैं और उन्हें इस तरह से ढाला जाता है कि वे बेहद उच्च तापमान और दबाव में भी बिना टूटे लंबे समय तक काम कर सकें। यह तकनीक इंजन की विश्वसनीयता, कार्यक्षमता और लाइफ साइकिल को बढ़ाती है। अब तक यह तकनीक केवल कुछ ही देशों के पास थी। डीआरडीओ के पास भी इस दिशा में रिसर्च मौजूद है, लेकिन हाई-थ्रस्ट फाइटर इंजन के स्तर पर इसे आकार देना एक बहुत बड़ी चुनौती रही है।
Safran-DRDO Jet Engine India: AMCA के लिए गेम चेंजर इंजन
इस नए इंजन का इस्तेमाल भारतीय वायुसेना के AMCA प्रोग्राम में होगा, जो एक डबल-इंजन स्टील्थ मल्टी-रोल फाइटर विमान होगा। यह नया इंजन 120 किलो न्यूटन (KN) की क्षमता वाला होगा और भविष्य में इसे 140 KN तक अपग्रेड किया जा सकेगा। इससे भारत का AMCA, जो 5वीं पीढ़ी का स्टील्थ मल्टी-रोल फाइटर जेट है, पूरी तरह स्वदेशी इंजन पर उड़ सकेगा।
🚨 #India issues strong advisory 🚨
Reports indicate Indian nationals being recruited into the Russian Army.
🇮🇳 Govt has repeatedly warned of the serious risks & dangers of this path.
📌 Delhi has raised the issue with Moscow, demanding release of affected Indians.
📌 Families of… pic.twitter.com/s6JanTopTW— Raksha Samachar | रक्षा समाचार 🇮🇳 (@RakshaSamachar) September 11, 2025
रक्षा सूत्रों का कहना है कि यह परियोजना लगभग 12 साल में पूरी होगी, जिसमें 9 प्रोटोटाइप इंजन तैयार किए जाएंगे। इसके बाद इन्हें टेस्टिंग और प्रोडक्शन की दिशा में आगे बढ़ाया जाएगा। इंजन को भारत में ही भारतीय बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR) के तहत डेवलप किया जाएगा और सफरान अपनी पूरी तकनीक भारत को सौंपेगा। इस विमान के निर्माण में निजी क्षेत्र भी शामिल होगा, जिसमें टाटा ग्रुप, एल एंड टी और अडानी डिफेंस जैसी कंपनियां भी शामिल होंगी।
Safran-DRDO Jet Engine India: पीएम मोदी ने किया था एलान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी साल स्वतंत्रता दिवस के भाषण में लाल किले के प्राचीर से जेट इंजन के स्वदेशी विकास पर जोर दिया था। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भी संकेत दिए थे कि भारत जल्द ही लड़ाकू विमानों के इंजन विकसित करने का कार्य शुरू करेगा। इस समझौते को अमलीजामा पहनाने में पिछले दो साल से काम चल रहा था, लेकिन अब मोदी सरकार ने डीआरडीओ को प्रस्ताव तैयार करने का निर्देश दिया है जिसे शीर्ष स्तर पर हरी झंडी मिलने की उम्मीद है।
Safran-DRDO Jet Engine India: फेल हुआ कावेरी
हालांकि भारत पहले भी जेट इंजन बनाने की कोशिश कर चुका है। डीआरडीओ के कावेरी इंजन (Kaveri Engine Project) पर सालों तक काम हुआ लेकिन यह परियोजना कभी सफल नहीं हो पाई। इसका मुख्य कारण था उच्च तापमान सहन करने की तकनीक की कमी। अब फ्रांस की मदद से भारत को यह तकनीक मिलेगी और वह अपनी विफलताओं को पीछे छोड़कर भविष्य की दिशा में बड़ा कदम रख सकेगा।
Safran-DRDO Jet Engine India: कौन-कौन से देश बना पाए अपने इंजन
यह कदम भारत के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आज दुनिया में सिर्फ अमेरिका, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन ही ऐसे देश हैं जिनके पास अपने लड़ाकू विमानों के लिए इंजन बनाने की क्षमता है। चीन अभी भी रूस के इंजन या उनकी नकल (रिवर्स इंजीनियरिंग) पर निर्भर है।
वर्तमान में भारत अपने लड़ाकू विमानों के लिए अमेरिकी कंपनी जीई से इंजन आयात कर रहा है। तेजस लड़ाकू विमानों के लिए 212 F-404 इंजन मंगाए गए हैं और जल्द ही 113 और इंजनों के लिए समझौता होने वाला है। इसके अलावा भारत GE F-414 इंजन भी ले रहा है, लेकिन इसमें तकनीक ट्रांसफर केवल 80 फीसदी तक सीमित है।
Safran-DRDO Jet Engine India: फ्रांस भरोसेमंद साझेदार
सूत्रों का कहना है कि अमेरिकी प्रस्तावों अक्सर कई शर्तें होती हैं। जो कई बार स्ट्रैटेजिक तौर पर नुकसानदेह होती हैं और भारत की संप्रभुता के साथ समझौता नहीं किया दा सकता। इसके उलट, फ्रांस भारत का भरोसेमंद साझेदार रहा है। 1998 में पोखरण परमाणु परीक्षणों के बाद भी फ्रांस ने भारत पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया था और भारतीय मिसाइलों के लिए अत्याधुनिक INGPS सिस्टम और मिराज 2000 विमानों के लिए आवश्यक पार्ट्स की सप्लाई जारी रखी थी। यही कारण है कि भारत इस बार फ्रांस पर भरोसा कर रहा है।
Safran-DRDO Jet Engine India: भारतीय वायुसेना के पास 36 राफेल विमान
फिलहाल भारतीय वायुसेना के पास 36 राफेल विमान हैं, जिन्हें 73 KN M-88 स्नेमा इंजन पावर देता है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि भारत दसॉ एविएशन से 114 और मल्टी-रोल फाइटर भारत में बनाने पर विचार कर रहा है। वहीं,
सफरान और डीआरडीओ के 120-140 KN का इंजन आने वाले दशकों में भारतीय वायुसेना के सबसे अहम प्लेटफॉर्म को पावर देगा। इसके जरिए वायुसेना न सिर्फ AMCA बल्कि नौसेना के ट्विन-इंजन डेक बेस्ड फाइटर (TEDBF) को भी मजबूती दे सकेगी।
रूस ने भी नहीं दी थी पूरी टेक्नोलॉजी
कई देशों ने भारत को जेट इंजन तकनीक साझा करने या लाइसेंस प्राप्त उत्पादन की अनुमति तो दी, लेकिन कभी भी 100 फीसदी टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की पेशकश नहीं की। रूस ने सुखोई Su-30 MKI के लिए AL-31FP इंजन की टेक्नोलॉजी का आंशिक तौर पर ट्रांसफर की थी। हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को कोरापुट, ओडिशा में इन इंजनों के उत्पादन का लाइसेंस मिला था। हालांकि, यह केवल असेंबली और कुछ हिस्सों तक सीमित रहा, जबकि डिजाइन, मैटेरियल साइंस और सिंगल-क्रिस्टल टरबाइन ब्लेड जैसी कोर टेकनोलॉजी रूस ने अपने पास रखी थी।
इससे पहले फ्रांस की सफरान ने मिराज 2000 के लिए Snecma M53 इंजन की कुछ तकनीकी जानकारी और मेंटेनेंस सपोर्ट दिया था। हालांकि, यह भी पूर्ण टेक्नोलॉजी ट्रांसफर नहीं था, बल्कि ऑपरेशनल और मेंटेनेंस स्तर तक सीमित था।
वहीं, ब्रिटेन ने भी 1960 और 70 के दशक में रोल्स-रॉयस इंजनों की टेक्नोलॉजी भारत के साथ साझा की थी। उस समय HS-748 और जगुआर विमानों के लिए Adour इंजन का लाइसेंस प्राप्त निर्माण हुआ। लेकिन यहां भी टेक्नोलॉजी केवल प्रोडक्शन और मेंटेनेंस तक सीमित रही, जबकि इंजन डिजाइन और कोर टेक्नोलॉजी पूरी तरह से भारत को नहीं मिली थी।
अमेरिका ने भारत को लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट एलसीए तेजस के लिए GE F404 इंजन दिया। बाद में F414 इंजन के लिए करीब 80 फीसदी टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की पेशकश की गई, जो एलसीए Mk2 और AMCA के लिए प्रस्तावित हैं। लेकिन इसमें भी थर्मल कोटिंग और ब्लेड मशीनिंग जैसी कुछ अहम तकनीकें साझा नहीं की गईं हैं।
बाकी देशों को भी नहीं मिली टेक्नोलॉजी
जेट इंजन की पूरी टेक्नोलॉजी का ट्रांसफर डिफेंस सेक्टर का सबसे संवेदनशील मुद्दा रहा है। दुनिया में अब तक ऐसे बहुत ही कम उदाहरण सामने आए हैं जहां किसी देश ने किसी अन्य देश को जेट इंजन की पूरी टेक्नोलॉजी डिजाइन, मैटेरियल साइंस, मैन्युफैक्चरिंग और ट्रायल्स समेत पूरी टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की हो। यही वजह है कि भारत को हाल ही में फ्रांस से मिली 100 फीसदी टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की पेशकश को दुनियाभर में एक अपवाद के तौर पर देखा जा रहा है।
इतिहास पर नजर डालें तो चीन और रूस का उदाहरण सबसे प्रमुख हैं। रूस ने चीन को सुखोई Su-27 और Su-30 विमानों के लिए AL-31F इंजन की सप्लाई की थी और साथ ही लाइसेंस प्राप्त प्रोडक्शन की अनुमति भी दी थी। चीन की शेनयांग कंपनी ने इन इंजनों का स्थानीय निर्माण शुरू किया और बाद में इन्हीं के आधार पर WS-10 ताइहांग इंजन डेवलप किया। हालांकि, रूस ने चीन को इंजन के कोर डिजाइन और सिंगल-क्रिस्टल टरबाइन ब्लेड जैसी महत्वपूर्ण तकनीक नहीं दी। चीन ने रिवर्स इंजीनियरिंग और अपनी रिसर्च के जरिए यह क्षमता हासिल की, लेकिन रूस ने उस पर टेक्नोलॉजी की नकल करने का आरोप भी लगाया था।
दूसरा उदाहरण अमेरिका और जापान का है। अमेरिका ने जापान को F-15J और F-2 लड़ाकू विमानों के लिए प्रैट एंड व्हिटनी F100 और GE F110 इंजनों का लाइसेंस प्राप्त प्रोडक्शन करने की इजाजत दी थी। जापान की कंपनी IHI ने इन इंजनों का निर्माण किया। हालांकि, यहां भी मामला आंशिक टेक्नोलॉजी ट्रांसफर तक सीमित रहा। इंजन असेंबली और कुछ सिस्टम के निर्माण की अनुमति तो मिली, लेकिन कोर डिजाइन और एडवांस मेटल अलॉयज और कोटिंग्स की टेक्नोलॉजी साझा नहीं की गई। जापान ने बाद में XF9-1 नामक स्वदेशी इंजन बनाने की कोशिश भी की थी।
दक्षिण कोरिया का अनुभव भी अलग नहीं रहा। अमेरिका ने वहां T-50 गोल्डन ईगल ट्रेनर विमान के लिए GE F404 इंजन की लाइसेंस प्राप्त निर्माण तकनीक दी। सैमसंग टेकविन (जो अब हनवा एयरोस्पेस है) ने इन इंजनों का निर्माण किया। लेकिन कोर डिजाइन और एडवांस टेक्नोलॉजी वहां भी साझा नहीं की गई। नतीजा यह रहा कि दक्षिण कोरिया अभी भी एडवांस जेट इंजनों के लिए अमेरिका पर निर्भर है।
फ्रांस ने भी अपने राफेल विमानों में इस्तेमाल होने वाले Snecma M88 इंजन की पूरी तकनीक किसी भी देश के साथ साझा नहीं की। यूएई और कतर जैसे सहयोगी देशों के साथ केवल ऑपरेशनल सपोर्ट और मेंटेनेंस स्तर का सहयोग किया गया, लेकिन पूर्ण टेक्नोलॉजी ट्रांसफर नहीं की।
विशेषज्ञों का कहना है कि अब तक किसी भी देश ने जेट इंजन की सौ फीसदी तकनीक किसी अन्य देश को नहीं दी। कारण साफ है कि यह तकनीक न सिर्फ सैन्य बल्कि आर्थिक और रणनीतिक दृष्टि से भी बेहद अहम है। इसे साझा करने से किसी देश का तकनीकी वर्चस्व और प्रतिस्पर्धी लाभ कमजोर हो सकता है। यही वजह है कि ज़्यादातर मामलों में केवल आंशिक ट्रांसफर, लाइसेंस प्राप्त उत्पादन या मेंटेनेंस स्तर की जानकारी ही साझा की जाती है।
चीन जैसे देशों ने रिवर्स इंजीनियरिंग और स्वदेशी अनुसंधान के जरिए अपनी क्षमता बढ़ाई, लेकिन यह भी पूर्ण टेक्नोलॉजी ट्रांसफर का उदाहरण नहीं माना जा सकता। जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देश अब भी अमेरिकी तकनीक पर निर्भर हैं। फ्रांस और रूस ने भी कोर डिजाइन और मटेरियल साइंस की जानकारी साझा करने से हमेशा परहेज किया है।
भारत के लिए फ्रांस की सफरान कंपनी का AMCA प्रोजेक्ट के तहत 100 फीसदी टेक्नोलॉजी ट्रांसफर का प्रस्ताव इसलिए ऐतिहासिक है क्योंकि यह दुनिया के उन चुनिंदा मामलों में शामिल होगा जहां एक देश को इंजन डिजाइन, मैटेरियल साइंस, निर्माण और परीक्षण तक की पूरी जानकारी मिलेगी।

