📍नई दिल्ली | 1 Mar, 2025, 1:16 PM
Manipur: मणिपुर पिछले कुछ समय से हिंसा, राजनीतिक अस्थिरता और जातीय संघर्ष का केंद्र बना हुआ है। जहां एक ओर घाटी में बसे मैतेई समुदाय और पहाड़ों में रहने वाले कुकी-नागा जनजातियों के बीच अविश्वास बढ़ा है, जहां दोनों पक्ष अपनी-अपनी कहानी पेश कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर सुरक्षा बलों और सरकार के प्रयासों के बावजूद स्थायी समाधान की कोई स्पष्ट राह नहीं दिख रही। इस संघर्ष ने न केवल राज्य को बल्कि पूरे उत्तर-पूर्व क्षेत्र को अस्थिरता की तरफ धकेल दिया है। आम जनता उलझन में है कि वास्तविकता क्या है और इसका समाधान कैसे निकलेगा।

हालांकि, पिछले कुछ महीनों में बड़े पैमाने पर हिंसा की घटनाएं कम हुई हैं, लेकिन जमीनी हालात अब भी तनावपूर्ण बने हुए हैं। हाल ही में राज्यपाल बदले गए हैं, जिनका प्रशासनिक अनुभव और क्षेत्र की गहरी समझ, संकट को हल करने की दिशा में एक सकारात्मक संकेत माना जा रहा है। सौभाग्य से, बीते कुछ महीनों से हिंसा की घटनाएं कम हुई हैं और एक अनुभवी राज्यपाल की नियुक्ति से प्रशासनिक मोर्चे पर स्थिरता की उम्मीद जगी है।
कैसे बढ़ता गया Manipur का संकट?
हालांकि, यह संकट एक दिन में नहीं उपजा। इसकी जड़ें कई सालों से चले आ रहे सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक असंतुलन में छिपी हुई हैं। 3 मई 2023 को भड़की हिंसा के पीछे मणिपुर हाई कोर्ट का 27 मार्च 2023 का आदेश महत्वपूर्ण माना जा रहा है, लेकिन यह सिर्फ वह चिंगारी थी, जिसने घाटी और पहाड़ों में रहने वाले समुदायों के बीच पहले से दबी हुई असहमति और अविश्वास की आग को भड़का दिया।
2015 में पारित तीन विवादास्पद विधेयक
2015 में जब मणिपुर विधानसभा ने तीन विधेयकों को पारित किया था, मणिपुर पीपुल्स प्रोटेक्शन बिल, लैंड रेवेन्यू एंड लैंड रिफॉर्म्स (7वां संशोधन) बिल, और शॉप्स एंड एस्टेब्लिशमेंट (2nd संशोधन) बिल। ये विधेयक राष्ट्रपति की मंजूरी नहीं पा सके, लेकिन इनकी स्वीकृति को पहाड़ियों में रहने वाले नागा और कुकी समुदायों ने अपने अधिकारों के खिलाफ माना। इसके परिणामस्वरूप, अगस्त 2015 में हुई हिंसा में एक मैतेई युवक और नौ कुकी नागरिकों की मौत हो गई। कुकी समुदाय ने इन मृतकों के शव 632 दिनों तक अंतिम संस्कार के लिए रोककर विरोध प्रदर्शन किया।
इस घटना के बाद दोनों समुदायों में अविश्वास बढ़ता गया। हालांकि 2017 में सरकार और जनजातीय संगठनों के बीच समझौते के बाद इन शवों का अंतिम संस्कार हुआ। लेकिन इस संघर्ष की चिंगारी बुझी नहीं, बल्कि समय के साथ और भड़कती गई।
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3 मई 2023 को विरोध प्रदर्शन
2023 में जब राज्य सरकार ने आरक्षित वनों, संरक्षित क्षेत्रों और अतिक्रमण को लेकर सर्वेक्षण किया, तब आदिवासी संगठन इंडिजिनस ट्राइबल लीडर्स फोरम (ITLF) ने इसके विरोध में बयान जारी किया। मणिपुर हाईकोर्ट के आदेश के बाद, सेना और असम राइफल्स को यह अंदेशा था कि राज्य में तनाव बढ़ सकता है। इसके बाद 3 मई 2023 को विरोध प्रदर्शन हिंसा में तब्दील हो गया। इंफाल, चुराचांदपुर, बिष्णुपुर, मोरेह और कांगपोकपी जैसे इलाकों में भीषण झड़पें हुईं।
जब हिंसा नियंत्रण से बाहर हो गई, तो हालात को संभालने के लिए भारतीय सेना और असम राइफल्स की तैनाती की गई। दोनों समुदायों के लोग बड़ी संख्या में पलायन करने लगे। सेना और असम राइफल्स ने तुरंत कार्रवाई करते हुए हिंसा को नियंत्रित करने, गांवों को जलने से रोकने, फंसे हुए नागरिकों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाने और घायलों को चिकित्सा सहायता देने जैसे अहम कार्य किए। हालांकि, उन्हें भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। ब्लॉकेड, स्थानीय विरोध, और दोनों समुदायों के उग्रवादी गुटों की गतिविधियों ने शांति स्थापना की प्रक्रिया को जटिल बना दिया।
असम राइफल्स पर लगाए आरोप
हालांकि, सुरक्षा बलों, विशेष रूप से असम राइफल्स पर एकतरफा कार्रवाई करने के आरोप भी लगे। कुकी समुदाय का मानना था कि सेना मैतेई का पक्ष ले रही है, जबकि मैतेई समुदाय का आरोप था कि सुरक्षा बल कुकी जनजातियों के समर्थन में कार्य कर रहे हैं। लेकिन यह आरोप न सिर्फ आधारहीन थे, बल्कि असम राइफल्स के इतिहास को भी अनदेखा करने वाले थे। सच्चाई यह है कि असम राइफल्स और भारतीय सेना को उत्तर-पूर्व में तैनात हुए लगभग 190 साल हो चुके हैं। उन्होंने हमेशा क्षेत्र में शांति बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बावजूद इसके, मणिपुर में बढ़ते अविश्वास ने सुरक्षा बलों के लिए हालात मुश्किल बना दिए हैं।
1956 से असम राइफल्स उग्रवाद विरोधी अभियानों में सक्रिय भूमिका निभा रहा है और इसने राज्य में आतंकवाद को काबू में लाने में अहम योगदान दिया है। यह आरोप कि सुरक्षा बल किसी एक पक्ष के प्रति झुकाव रखते हैं, सैन्य अनुशासन और उनके कार्यप्रणाली के खिलाफ जाता है।
समस्या का अगली पीढ़ी पर मनोवैज्ञानिक असर
इस संकट का सबसे गहरा प्रभाव मणिपुर की युवा पीढ़ी पर पड़ रहा है। यह हिंसा सिर्फ वर्तमान तक सीमित नहीं है, बल्कि आने वाली पीढ़ियां भी इस संघर्ष को अपनी कहानियों में संजोए रखेंगी, जिससे राज्य में ध्रुवीकरण और बढ़ सकता है। यदि दोनों समुदायों के लोग इसे इतिहास की एक कड़वी गलती मानकर आगे बढ़ने का संकल्प लें, तो ही यह जख्म भरा जा सकता है।
Manipur में कैसे खत्म होगी आपसी कटुता
इसके लिए बुजुर्गों, सामाजिक संगठनों, महिला समूहों और युवाओं को आगे आकर शांति की पहल करनी होगी। अनंत संघर्ष कभी भी किसी समस्या का समाधान नहीं होता। इस संकट का स्थायी समाधान केवल सैन्य कार्रवाई से नहीं, बल्कि राजनीतिक पहल और सामुदायिक संवाद के माध्यम से ही संभव है। सभी पक्षों को यह समझने की आवश्यकता है कि अंतहीन हिंसा किसी भी पक्ष के लिए लाभदायक नहीं है। इसके लिए,
- संविधान के अनुच्छेद 371C के तहत जनजातीय समुदायों को दिए गए विशेष अधिकारों पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए, ताकि मैतेई और पहाड़ी जनजातियों के बीच संतुलन स्थापित किया जा सके।
- सरकार को सभी पक्षों को बातचीत के लिए एक मंच प्रदान करना होगा, ताकि वे अपनी समस्याओं को खुले रूप में रख सकें और समाधान की ओर बढ़ सकें।
- रोजगार और विकास कार्यक्रमों पर ध्यान दिया जाए, ताकि युवाओं को हिंसा से दूर रखा जा सके और वे एक सकारात्मक भविष्य की ओर बढ़ सकें।
चीन और म्यांमार की भूमिका और मुक्त आवाजाही व्यवस्था (FMR)
उत्तर-पूर्व भारत की स्थिति केवल आंतरिक संघर्ष तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें अंतरराष्ट्रीय भू-राजनीति की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। मणिपुर की सीमा म्यांमार से लगती है, जहां चीन समर्थित विद्रोही गुट सक्रिय हैं। यह संदेह जताया जा रहा है कि चीन और अन्य बाहरी ताकतें मणिपुर में अस्थिरता बनाए रखने में अप्रत्यक्ष रूप से भूमिका निभा रही हैं।
इसके अलावा मणिपुर और म्यांमार की सीमा पर अवैध हथियार और नशीली दवाओं की तस्करी बढ़ रही है। हाल ही में भारतीय तटरक्षक बल ने 36,000 करोड़ रुपये की नशीली दवाओं को जब्त किया, जो म्यांमार से आ रही थीं। इससे साफ है कि मणिपुर संकट केवल जातीय हिंसा तक सीमित नहीं, बल्कि इसमें संगठित अपराध और अंतरराष्ट्रीय तस्करी भी शामिल है।
भारत सरकार ने म्यांमार से लगी सीमा पर ‘फ्री मूवमेंट रेजीम’ (FMR) को समाप्त करने और सीमा पर बाड़ लगाने की योजना बनाई है। यह कदम सुरक्षा की दृष्टि से जरूरी है, क्योंकि इस व्यवस्था का उपयोग उग्रवादियों और अपराधियों द्वारा गलत तरीके से किया जा रहा था।
हालांकि, इस फैसले को लेकर स्थानीय लोगों में चिंता है कि इससे भारत-म्यांमार के लोगों के सांस्कृतिक और पारिवारिक संबंध प्रभावित होंगे। सरकार ने स्पष्ट किया है कि यह बाड़ आंशिक होगी और केवल चिन्हित प्रवेश और निकासी बिंदुओं से ही आवाजाही होगी।
AFSPA की वापसी और राजनीतिक विवाद
मणिपुर के छह जिलों में AFSPA (आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट) फिर से लागू किया गया है। यह निर्णय विवादास्पद रहा, लेकिन यह भी समझना जरूरी है कि जब AFSPA हटाया गया था, तब यह मानकर हटाया गया था कि हालात नियंत्रण में रहेंगे। चूंकि स्थिति बिगड़ चुकी है, इसलिए इसे वापस लाना अपरिहार्य हो गया था।
मीडिया की भूमिका और प्रोपेगेंडा का खेल
मणिपुर संकट में मीडिया की भूमिका पर भी सवाल उठे हैं। कुछ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया हाउस पक्षपाती रिपोर्टिंग कर रहे हैं, जिससे हिंसा को और बढ़ावा मिल रहा है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी झूठी खबरें और भ्रामक तस्वीरें साझा की जा रही हैं, जिससे हालात और बिगड़ते जा रहे हैं।
मीडिया को जिम्मेदारी से रिपोर्टिंग करनी होगी और समाज को जोड़ने वाली सकारात्मक खबरें भी सामने लानी होंगी। दोनों समुदायों में ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां लोगों ने एक-दूसरे की मदद की है।
क्या मणिपुर अब एक ‘नो रिटर्न पॉइंट’ पर पहुंच चुका है?
अब राष्ट्रपति शासन लागू किया जा चुका है और उम्मीद है कि इससे प्रशासन को अधिक प्रभावी ढंग से काम करने का अवसर मिलेगा। अब सेना और सुरक्षा बलों को शांति बहाल करने और अवैध गतिविधियों पर अंकुश लगाने का अधिक स्वतंत्र अधिकार मिलेगा। लेकिन असली समाधान सिर्फ सरकार या सुरक्षा बलों के हाथ में नहीं है। मणिपुर के नागरिकों को भी समझना होगा कि हिंसा से कुछ हासिल नहीं होगा। उन्हें अपने समाज की समृद्धि और भविष्य के लिए आगे बढ़ने का रास्ता चुनना होगा।
राज्यपाल की नई भूमिका से उम्मीद है कि जातीय तटस्थता बनी रहेगी और राहत सामग्री का न्यायपूर्ण वितरण होगा। राष्ट्रपति शासन के तहत प्रशासनिक फैसले तेज़ी से लिए जाएंगे, जिससे मणिपुर में धीरे-धीरे स्थिरता लौट सकती है।
मणिपुर संकट को हल करने के लिए स्थानीय समुदायों, सरकार और आम जनता-सभी को मिलकर काम करना होगा। यह केवल एक राज्य का मुद्दा नहीं, बल्कि पूरे उत्तर-पूर्व भारत की स्थिरता और भारत की “एक्ट ईस्ट पॉलिसी” की सफलता से जुड़ा हुआ है। अगर सही दिशा में प्रयास किए गए, तो यह संभव है कि मणिपुर एक बार फिर शांति और विकास की राह पर लौट आए। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि हिंसा के बजाय संवाद और सहयोग को प्राथमिकता दी जाए।
यदि हम वास्तव में मणिपुर को संकट से निकालना चाहते हैं, तो हमें नफरत से बाहर निकलकर शांति, संवाद और विकास के रास्ते पर चलना होगा। यही एकमात्र समाधान है, जिससे यह खूबसूरत राज्य अपने पुराने गौरव को फिर से प्राप्त कर सकता है।
लेखक लेफ्टिनेंट जनरल प्रदीप चंद्रन नायर (रिटायर्ड) भारतीय सेना की असम राइफल्स के महानिदेशक रह चुके हैं। वे अति विशिष्ट सेवा पदक (Ati Vishisht Seva Medal) से सम्मानित हो चुके हैं। वे उत्तर-पूर्व भारत में अपने व्यापक सैन्य अनुभव और कुशल नेतृत्व के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने मणिपुर में एक ब्रिगेड की कमान संभालते हुए युद्ध सेवा पदक (Yudh Seva Medal) प्राप्त किया था। इसके अलावा, उन्हें तीन बार थलसेना प्रमुख प्रशस्ति पत्र (Chief of Army Staff Commendation Card) से भी सम्मानित किया गया है। लेफ्टिनेंट जनरल नायर ने अपने सैन्य करियर के दौरान असम में 18 सिख बटालियन की कमान संभाली, मणिपुर में ब्रिगेड कमांडर के रूप में सेवाएं दीं, और हाल ही में नागालैंड में असम राइफल्स के महानिरीक्षक (Inspector General of Assam Rifles) के रूप में कार्य किया। उनकी रणनीतिक सोच, नेतृत्व क्षमता और जमीनी अनुभव ने उत्तर-पूर्व में आतंकवाद और उग्रवाद से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।